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रतुआ रोग

इन रोगों से बचाऐं किसान अपनी गेंहू की फसल

इन रोगों से बचाऐं किसान अपनी गेंहू की फसल

मौसमिक परिवर्तन के चलते गेहूं की खड़ी फसल में लगने वाले कीट एवं बीमारियां काफी अधिक परेशान कर सकती हैं। किसानों को समुचित समय पर सही कदम उठाकर इससे निपटें नहीं तो पूरी फसल बेकार हो सकती है।

वर्तमान में गेहूं की फसल खेतों में लगी हुई है। मौसम में निरंतर परिवर्तन देखने को मिल रहा है। कभी बारिश तो कभी शीतलहर का कहर जारी है, इसलिए मौसम में बदलाव की वजह से गेहूं की खड़ी फसल में लगने वाले कीट और बीमारियां काफी समस्या खड़ी कर सकती हैं। किसान भाई वक्त पर सही कदम उठाकर इससे निपटें वर्ना पूरी फसल बेकार हो सकती है। गेंहू में एक तरह की बामारी नहीं बल्कि विभिन्न तरह की बामारियां लगती हैं। किसानों को सुझाव दिया जाता है, कि अपनी फसल की नियमित तौर पर देखरेख व निगरानी करें।

माहू या लाही

माहू या लाही कीट काले, हरे, भूरे रंग के पंखयुक्त एवं पंखविहीन होते हैं। इसके शिशु एवं वयस्क पत्तियों, फूलों तथा बालियों से रस चूसते हैं। इसकी वजह से फसल को काफी ज्यादा नुकसान होता है और फसल बर्बाद हो जाती है। बतादें, कि इस कीट के प्रकोप से फसल को बचाने के लिए वैज्ञानिकों द्वारा दी गई सलाहें।

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फसल की समय पर बुआई करें।

  • लेडी बर्ड विटिल की संख्या पर्याप्त होने पर कीटनाशी का व्यवहार नहीं करें।
  • खेत में पीला फंदा या पीले रंग के टिन के चदरे पर चिपचिपा पदार्थ लगाकर लकड़ी के सहारे खेत में खड़ा कर दें। उड़ते लाही इसमें चिपक जाएंगे।
  • थायोमेथॉक्साम 25 प्रतिशत डब्ल्यूजी का 50 ग्राम प्रति हेक्टेयर या क्विनलफोस 25 प्रतिशत ईसी का 2 मिली प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

हरदा रोग

वैज्ञानिकों के मुताबिक, इस मौसम में वर्षा के बाद वायुमंडल का तापमान गिरने से इस रोग के आक्रमण एवं प्रसार बढ़ने की आशंका ज्यादा हो जाती है। गेहूं के पौधे में भूरे रंग एवं पीले रंग के धब्बे पत्तियों और तनों पर पाए जाते हैं। इस रोग के लिए अनुकूल वातावरण बनते ही सुरक्षात्मक उपाय करना चाहिए।

बुआई के समय रोग रोधी किस्मों का चयन करें।

बुआई के पहले कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 2 ग्राम या जैविक फफूंदनाशी 5 ग्राम से प्रति किलो ग्राम बीज का बीजोपचार अवश्य करें।

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खड़ी फसल में फफूंद के उपयुक्त वातावरण बनते ही मैंकोजेब 75 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 2 किलो ग्राम, प्रोपिकोनाजोल 25 प्रतिशत ईसी का 500 मिली प्रति हेक्टेयर या टेबुकोनाजोल ईसी का 1 मिली प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें।

अल्टरनेरिया ब्लाईट

अल्टरनेरिया ब्लाईट रोग के लगने पर पत्तियों पर धब्बे बनते हैं, जो बाद में पीला पड़कर किनारों को झुलसा देते हैं। इस रोग के नियंत्रण के लिए मैकोजेब 75 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 2 किलो ग्राम या जिनेव 75 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 2 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।

कलिका रोग

कलिका रोग में बालियों में दाने के स्थान पर फफूंद का काला धूल भर जाता है। फफूंद के बीजाणु हवा में झड़ने से स्वस्थ बाली भी आक्रांत हो जाती है। यह अन्तः बीज जनित रोग है। इस रोग से बचाव के लिए किसान भाई इन बातों का ध्यान रखें।

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रोग मुक्त बीज की बुआई करे।

  • कार्बेन्डाजिंग 50 घुलनशील चूर्ण का 2 ग्राम प्रति किलोग्राग की दर से बीजोपचार कर बोआई करें। 
  • दाने सहित आक्रान्त बाली को सावधानीपूर्वक प्लास्टिक के थैले से ढक कर काटने के बाद नष्ट कर दें। 
  • रोग ग्रस्त खेत की उपज को बीज के रूप में उपयोग न करें। 

बिहार सरकार ने किसानों की सुविधा के लिए 24 घंटे उपलब्ध रहने वाला कॉल सेंटर स्थापित कर रखा है। यहां टॉल फ्री नंबर 15545 या 18003456268 से संपर्क कर किसान अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त कर सकते हैं।

कहीं आप की गेहूं की फसल भी इस रोग से प्रभावित तो नहीं हो रही, लक्षणों पर जरूर दें ध्यान

कहीं आप की गेहूं की फसल भी इस रोग से प्रभावित तो नहीं हो रही, लक्षणों पर जरूर दें ध्यान

उत्तर भारत में पिछले कुछ दिनों से बारिश हो रही है। इस बार इसको गेहूं की फसल के लिए अच्छा माना जाता है। लेकिन अगर बारिश ज्यादा होती है, तो यह कभी-कभी गेहूं की फसल में रतुआ रोग का कारण भी बन जाती है। इस बीमारी से फसल की पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और कभी-कभी पूरी फसल बर्बाद हो जाती है।

रतुआ रोग का सबसे बड़ा कारण है नमी

गेहूं की फसल में यह बीमारी ज्यादातर इसी मौसम में देखने को मिलती हैं।
रतुआ रोग में पत्तियां पीली, भूरी या फिर काले रंग के धब्बों से भर जाती हैं। पत्तों पर छोटे-छोटे धब्बे बन जाते हैं। जिसमें आपको पीला चूर्ण देखने को मिलता है। हाथ लगाते ही पता पूरी तरह से पीला होकर जुड़ जाता है।

पत्तियां पीली पड़ने का कारण केवल रतुआ रोग नहीं

कृषि वैज्ञानिकों का कहना है, कि रतुआ रोग गेहूं की फसल को प्रभावित करता है और उसकी पत्तियां पीली कर देता है। लेकिन जरूरी नहीं कि हमेशा पत्तियां पीली होने का कारण यही रोग हो। बहुत बार किसानों को लगता है, कि उनकी फसल में किसी ना किसी तरह का रोग हो गया है। इसलिए फसल की पत्तियों पर असर हो रहा है। बहुत बार गेहूं की फसल की पत्तियां पोषण की कमी के कारण भी रंग बदलने लगती हैं।
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आप इस बात का पता इस तरह से लगा सकते हैं, कि अगर आपकी गेहूं की फसल में रतुआ रोग है और आप उसकी पत्तियों को हाथ लगाते हैं। तो आपके हाथों पर एक चिपचिपा पदार्थ लग जाता है। जबकि पोषण की कमी के कारण पत्तियों में हुए बदलाव में ऐसा कुछ नहीं देखने को मिलता है।

मार्च आने तक सभी लक्षणों पर ध्यान दें और करें बचाव

कृषि विशेषज्ञों का मानना है, कि अगर आपकी गेहूं की फसल में पोषण की कमी है या फिर उसमें रतुआ रोग है। तो दिसंबर से मार्च के बीच में आपको यह लक्षण दिखाई देने लगते हैं। इन महीनों में उत्तर भारत में तापमान 10 डिग्री से 15 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है। जो इस रोग के लिए एकदम सही माना गया है। हरियाणा की बात की जाए तो यहां पर अंबाला और यमुनानगर दोनों ही जिलों में इस रोग के काफी ज्यादा मामले सामने आए हैं।
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आप कुछ तरीके अपनाकर इन दोनों ही चीजों से अपनी फसल का बचाव कर सकते हैं। बचाव के लिए प्रोपकोनाजोल 200 मिलीलीटर को 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। अगर आपको लग रहा है, कि आप की फसल में बीमारी ज्यादा है तो आप एक बार फिर से छिड़काव कर सकते हैं। इसके अलावा किसानों को यह सलामी दी जा रही है, कि वह फसल को उगाने के लिए उत्तम क्वालिटी के बीज इस्तेमाल करें। ताकि फसल रोग से प्रभावित ना हो।
गेहूं की फसल में लगने वाले प्रमुख रतुआ रोग

गेहूं की फसल में लगने वाले प्रमुख रतुआ रोग

चावल के बाद गेहूं भारत मुख्य फसल है। रबी के मौसम में गेहूं की बुवाई की जाती है। गेहूं की फसल उत्पादन में किसानों को कई कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। मुख्य रूप से गेहूं की फसल उत्पादन में रोगों के कारण पैदावार कम होती है जिससे की किसानों को नुकसान होता है। आज के इस लेख में हम गेहूं कि फसल में लगने वाले प्रमुख रोगों की बात करेंगे। गेहूं की फसल में कई रोग लगते है परन्तु सबसे ज्यादा नुकसान रतुआ रोग से होता है। रतुआ 3 प्रकार का होता है। भूरा रतुआ, काला रतुआ, पीला रतुआ

पर्ण रतुआ/भूरा रतुआ रोग

यह पक्सीनिया रिकोंडिटा ट्रिटिसाई नामक कवक से होता है तथा सम्पूर्ण भारत में पाया जाता है | इस रोग की शुरुआत उत्तर भारत की हिमालय तथा दक्षिण भारत की निलगिरी पहाड़ियों से शुरू होता है एवं वहां पर जीवित रहता है तथा वहाँ से हवा द्वारा मैदानी क्षेत्रों में फैलकर गेहूं की फसल को संक्रमित करता है |रोग कि पहचान :- इस रोग कि पहचान यह है कि प्रारम्भ में इस रोग के लक्षण नारंगी रंग के सुई की नोक के बिन्दुओं के आकार के बिना क्रम के पत्तियों की उपरी सतह पर उभरते हैं जो बाद में और घने होकर पूरी पत्ती और पर्ण वृन्तों पर फैल जाते हैं | रोगी पत्तियां जल्दी सुख जाती है जिससे प्रकाश संश्लेषण में भी कमी होती है और दाना हल्का बनता है | गर्मी बढने पर इन धब्बों का रंग, पत्तियों की निचली सतह पर काला हो जाता है तथा इसके बाद यह रोग आगे नहीं फैलता है।  इस रोग से गेहूं की उपज में 30 प्रतिशत तक की हानि हो सकती है।

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धारीदार रतुआ या पीला रतुआ रोग 

यह पक्सीनिया स्ट्राईफारमिस नामक कवक से होता है | इस रोग के लक्षण प्रारम्भ में पत्तियों के उपरी सतह पर पीले रंग की धारियों के रूप में देखने को मिलते हैं जो कि धीरे–धीरे पूरी पत्तियों को पीला कर देते हैं तथा पीला पाउडर जमीन पर भी गिरने लगता है  इस स्थिति को गेहूं में पीला रतुआ कहते हैं| यदि यह रोग कल्ले निकलने वाली अवस्था या इससे पहले आ जाता है तो फसल में बाली नहीं आती है | यह रोग उत्तरी हिमालय की पहाड़ियों से उत्तरी मैदानी क्षेत्र में फैलता है | यह रोग तापमान बढने पर कम हो जाता है तथा पत्तियों पर पीली धारियां काले रंग की हो जाती है। मध्य तथा दक्षिणी क्षेत्रों में यह रोग अधिक तापमान की वजह से नहीं फैलता हैं। 

गेहूं का तना रतुआ या काला रतुआ रोग      

इस रोग का रोग जनक पक्सीनिया ग्रैमिनिस ट्रिटिसाई नामक कवक है | यह रोग प्रारम्भ में निलगिरी तथा पलनी पहाड़ियों से आता है तथा इसका प्रकोप दक्षिण तथा मध्य क्षेत्रों में अधिक होता है | उत्तरी क्षेत्र में यह रोग फसल पकने के समय पहुँचता है | इसलिए इसका प्रभाव नगण्य होता है | यह रोग अक्सर 20 डिग्री नगण्य सेंटीग्रेड से अधिक तापमान पर फैलता है | इस रोग के लक्षण तने तथा पत्तियों पर चाकलेट रंग जैसा काला हो जाता है | दक्षिण तथा मध्य क्षेत्रों में जारी की नवीनतम प्रजातियाँ इस रोग के लिए प्रतिरोधी होती है | हालांकि लोक -1 जैसी प्रजातियों में यह रोग काफी लगता है। हाल के कुछ वर्षों में इस रोग की नयी प्रजाति यू.जी. 99 कुछ अफ़्रीकी देशों में विकसित हो गयी है |

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रोगों का नियंत्रण 

इन तीनो रोगों को नियंत्रित करने के लिए किसान को अच्छी तरह से वैज्ञानिकों द्वारा बताये गये प्रभावित उपाय अपनाने चाहिए तथा गेहूं की फसल पर रतुआ की आरम्भिक एवं अनुकूल वातावरण की अवस्था में रसायन प्रोपीकानजोल (टिल्ट 25 प्रतिशत ई.सी.) अथवा ट्राईडिमेफान बेलिटान 25 प्रतिशत ई.सी. अथवा टेबकोनाजोल का छिड़काव 0.1 प्रतिशत की दर से (एक मिली लीटर दवा प्रति लीटर पानी) करने से रतुआ नियंत्रित किया जा सकता है। रसायन का छिड़काव लगभग 15 दिन बाद फिर से आवश्यकतानुसार किया जा सकता है।

चना की फसल अगर रोगों की वजह से सूख रही है, तो करें ये उपाय

चना की फसल अगर रोगों की वजह से सूख रही है, तो करें ये उपाय

चना एक ऐसी फसल है, जो किसानों को काफी फायदा पहुंचाती है। लेकिन अगर इसकी अच्छे से देख-रेख ना की जाए तो इसमें बहुत जल्द रोग लग जाता है। चने की फसल में लगने वाले कुछ रोग हैं उखेड़ा, रतुआ, एस्कोकाइटा ब्लाईट, सूखा जड़ गलन, आद्र जड़ गलन, ग्रे मोल्ड ऐसे में किसान फसल लगाने के बाद हमेशा ही परेशान रहते हैं, कि अपनी चने की फसल को किस तरह से इन लोगों से बचाया जाए। आप कुछ बातें ध्यान में रखते हुए अपनी फसल को इन बीमारियों से बचा सकते हैं।

उखेड़ा:

चने की फसल में यह रोग बहुत ही आसानी से लग जाता है, यह फफूंद से लगने वाला एक तरह का रोग है और चने की फसल को इससे बचाने के कुछ उपाय हैं।
  • किसानों को चाहिए कि वह रोग प्रतिरोधी किस्म जैसे कि 1, एच.सी. 3, एच.सी. 5, एच.के. 1, एच.के. 2, सी.214, उदयरोगप्रतिरोधक किस्में जैसे- एच.सी, अवरोधी, बी.जी. 244, पूसा- 362, जे जी- 315, फूले जी- 5, डब्ल्यू आर - 315, आदि से खेती करें।
  • बीज के उपचार के लिए 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा विरिडी $ विटावैक्स 1 ग्राम का 5 मिली लीटर पानी में लेप बनाकर प्रति किलोग्राम बीज की दर से प्रयोग करें।
  • जितना ज्यादा हो सके खेती में हरी और ऑर्गेनिक खाद ही डालें।
  • अगर आप के खेत में चने की खेती में बार-बार यह बीमारी हो रही है तो आपको कोशिश करनी चाहिए कि आप तीन-चार साल के लिए खेत में चना गाना बंद कर दें।
  • जब भी आप खेत में चने की बुवाई कर रहे हैं तो थोड़ी सी गहरी बुवाई करें जो लगभग 8 से 10 सेंटीमीटर तक गहरी हो।


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रतुआ रोग

यह रोग चने की पत्तियों में होता है और इस रोग के होने के बाद फसल में पत्तों पर छोटे-छोटे भूरे रंग के धब्बे हो जाते हैं जो धीरे-धीरे पूरी फसल को बर्बाद कर देते हैं। इस रोग से फसल को बचाने के लिए आपको निम्नलिखित उपाय करने चाहिए।
  • जितना ज्यादा हो सके फसल को कीटनाशक मुक्त रखें।
  • रोग प्रतिरोधी जैसे कि गौरव आदि ही उगाएं।


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एस्कोकाइटा ब्लाईट

यह रोग चने की खेती के बीजों से ही आरंभ हो जाता है और फसल में फूल आने में अड़चन पैदा करता है। इस रोग से फसल को बचाने के लिए आपको बीजों पर खास ध्यान देने की जरूरत है।
  • रोग प्रतिरोधक किस्में जैसे कि सी-235, एच सी-3 या हिमाचल चना-1 उगायें।
  • केवल प्रमाणित बीज का ही प्रयोग करें।

सूखा जड़ गलन

यह रोग चने की खेती में ज्यादातर गलत बीज या फिर गलत मिट्टी से होता है। इस रोग में फसल में फूल से फली बनने में समस्या आती है। पौधे की पत्तियां और तने भूरे रंग के होकर झड़ने लगते हैं। इस रोग के निदान के लिए आपको कुछ उपाय करने की आवश्यकता है।


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  • अगर बार बार किसी मिट्टी में सूखा जड़ गलन रोग हो रहा है, तो आपको उसमें चने की खेती करना बंद कर देना चाहिए।
  • गेहूं और जौ की खेती के साथ एक फसल चक्र बनाएं इससे चने की खेती में सूखा जड़ गलन रोग कम होने लगता है।
  • खेत में फसल के अवशेष को ना छोड़ें और बहुत ज्यादा गहरी जुताई करें।

मोल्ड

यह रोग भी चने की फसल की जड़ें और पत्तियों को नष्ट कर देता है। इसमें फसल में फूल से फल बन ही नहीं पाता है और आप की फसल पूरी तरह से बर्बाद हो जाती है। इस रोग से बचने के लिए आपको नीचे दिए गए उपाय अपनाने चाहिए।
  • फसल के दो पौधों के बीच में अच्छी खासी दूरी बनाए।
  • चने की खेती के साथ-साथ बीच में अलसी की खेती का फसल चक्र बनाए रखें।
  • फसल की आत्यधिक वनस्पतिक वृद्धि न होने दें।
  • खेत में अत्यधिक पानी न दें।
इन सबके अलावा चने की खेती में एन्थ्रेक्नोज, स्टेमफाइलियम पत्ता धब्बा रोग, फोमा पत्ता ब्लाईट व स्टंट रोग भी देखने को मिलता है और आप बाकी रोग की तरह इन्हें भी सही तरह से फसल चक्र को बरकरार रखते हुए ठीक कर सकते हैं। इसके अलावा हमेशा ही सही तरह से निरीक्षण करने के बाद ही खेती के लिए बीज खरीदें और रोग प्रतिरोधक किस्मों को ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करें।